रूह पर वो चाक बनाकर कुछ यूँ चले हैं
जैसे कुछ पत्ते ढाक के, आपस में सिये हैं
वक़्त गुजरते जिस्म के ज़ख़्म भर ही जाते हैं
उन ज़ख्मों के निशाँ फिर भी नज़र आते है
रिश्तों की डोर पल पल खिंच सी जाती है
डोर छोड़ दूँ हाँथों से फिर डोर क्यूँ टूट जाती है
वक़्त गुजरते रिश्तों में गर्माहट सर्द हो जाती है
अचानक रिश्तों में बेबस ही गाँठ पड़ जाती है
जिस्मों को दफ़न कर हम आँखें सहलाते है
दामन भीग भी जाए तो हवा में सुखाते है
रह जाती है दिल में एक तस्वीर यार की
जिंदगी बस यादों की किताब बन जाती है