Sunday, December 19, 2010

कागज़ के निशाँ


जब तुमने प्यार के निशाँ कागज़ पर बनाए थे


हमने उन निशाँ को सिरहाने पर सजाये थे

महसूस की थी हमने उन सांसो की महक

जब हमने उन निशाँ पर निशाँ मिलाये थे

रातों को जाग हमने दिन के सपने सजाये थे

जब हमने उन निशाँ पर निशाँ सजाये थे

याद है वो रात जब तुम सपनो में आए थे

सपनो में आकर ख्वाबों से जगाये थे

रख कर हाथों पर हाथ लकीरों को मिलाये थे

करता हूँ इंतजार याद है कल का इकरार

करीब से गुजरता है बदनसीब है खरीदार

कागज़ के दाम हमने भी चुकाए थे

सिरहाने कोरे लिहाफ बिछाये थे

वो पर ऐसे थे की शरीर को साँसों से

और साँसों को ख़ुद से चुराए थे

कब से खोई दुनिया में कागज़ के महल सजाये थे

चाँद धरा और हसरतें


चाँद उतरा इस धारा पर, पूरी करने को हसरतें

देख चाँदनी के अस्क को, और बदलती वो करवटें
रह गया खामोश वो , हो गई थी बेहोश वो
सुध बुध न रही , हो गई खामोश वो
देख चाँदनी की बेबसी , चाँद भी फफक कर रोया
रह गया खामोश हो , गया था मदहोश वो 
देख चाँदनी के अस्क को चाँद उतरा इस धरा को
सिमटी सी सिसकी भरी चुभती सी हँसी
ले गई रात वो रह गया खमोश वो 
कर रही सुबह चांदनी पर किरण का कहर 
सिमटी सी सिसकती चादनी पर सूरज का कहर 
चाँद उतरा इस धारा पर पूरी करनें को हसरते
देख चाँदनी के अस्क को और बदलती हुई वो करवटें 
कभी पास कभी दूरी इन दोनों की मजबूरी 
अब तो पूरण की ही रात खत्म करेगी दूरी 
इस करवट कभी उस करवट पर छोड़ती नही हट 
मिलन की एक रात की छोड़ दे तू हट 
दूर है देश वो प्रेम का परदेश वो 
दूर हुईं दूर सही पर है मेरा स्वदेश वो 
इस कहर से इस सिहर से क्या छोड़ दूँ मैं पीहर को
मिट जाऊगी मर जाऊगी इस हट पर मर वर जाऊगी
प्यार की इस विरह को घूँट समझ पि जाऊगी 
दे दे मुझे विष कोलाहल अमृत समझ पी जाऊगी 
मिट जाऊगी मर जाऊगी हर पहर मर जाऊगी 
कर रही हूँ पहर को अन्तिम हो गई हूँ मैं स्वर्णिम 
नाम मेरा बदला है सूरज आग का गोला है 
सूरज ने मेरा दामन खिंच कर खोला है 
नाम मेरा बदल गया सूरज के संग दोल गया 
देर करी है तुने लेकिन मन मेरा ये बोला है 
तू ही मेरा डोला है तू ही मेरा डोला है

बालिका वधु


देख रही खडी इन हाथों की लकीरों को

मेंहदी के रंग से गढ़ी प्यारी हथेलियों को
बज रही शहनाई चढ़ती बारात दरवाजों को
खुश होती वो पहन रंगीन चूडियों को
चोली घाघर साथ सोने के गहनों को
करती है इन्तजार उस सुहाने पल को
मिलन के पावन सुंदर सलोने पल को
उम्र नही हुई पार, थी वह मुश्किल सोलह को 
दूल्हा भी था, था पर चढ़ती हुई उमर को 
खुश अब सेज पर देख , फूलों की लडों को 
खेल खेल में खेलती, देखती अपने सुंदर तन को 
खूब सुहाना खूब सलोना बिस्तर पर था खिलौना 
हुई दरवाजों को दस्तक दूल्हा आया संसर्ग को 
खिलखिलाना बंद हुआ कुछ दुल्हन को महसूस हुआ 
नई उम्र के ख्वाब कर रहा था चूर वो
बेबस और लाचार बिस्तर पर थी हार वो
उन ही लड़ियों को समेटती तन को धकेलती वो
लडखडाती हाथ जोड़ घुटनों को मोड़ वो
बिस्तर से तन को धकेलती मर्यादायों की कलइ खोलती
फफक फफक कर रो रही वो हाथों की लकीरें मेट रही वो
आसुओं से मेहदी को धो रही वो
आसुओं से मेहदी को धो रही वो

देख रही खड़ी इन हाथो की लकीरों को मेहदी के रंग से गढ़ी हथेलियों को 
देख रही खड़ी इन हाथो की लकीरों को मेहदी के रंग से गढ़ी हथेलियों को