Sunday, December 19, 2010

बालिका वधु


देख रही खडी इन हाथों की लकीरों को

मेंहदी के रंग से गढ़ी प्यारी हथेलियों को
बज रही शहनाई चढ़ती बारात दरवाजों को
खुश होती वो पहन रंगीन चूडियों को
चोली घाघर साथ सोने के गहनों को
करती है इन्तजार उस सुहाने पल को
मिलन के पावन सुंदर सलोने पल को
उम्र नही हुई पार, थी वह मुश्किल सोलह को 
दूल्हा भी था, था पर चढ़ती हुई उमर को 
खुश अब सेज पर देख , फूलों की लडों को 
खेल खेल में खेलती, देखती अपने सुंदर तन को 
खूब सुहाना खूब सलोना बिस्तर पर था खिलौना 
हुई दरवाजों को दस्तक दूल्हा आया संसर्ग को 
खिलखिलाना बंद हुआ कुछ दुल्हन को महसूस हुआ 
नई उम्र के ख्वाब कर रहा था चूर वो
बेबस और लाचार बिस्तर पर थी हार वो
उन ही लड़ियों को समेटती तन को धकेलती वो
लडखडाती हाथ जोड़ घुटनों को मोड़ वो
बिस्तर से तन को धकेलती मर्यादायों की कलइ खोलती
फफक फफक कर रो रही वो हाथों की लकीरें मेट रही वो
आसुओं से मेहदी को धो रही वो
आसुओं से मेहदी को धो रही वो

देख रही खड़ी इन हाथो की लकीरों को मेहदी के रंग से गढ़ी हथेलियों को 
देख रही खड़ी इन हाथो की लकीरों को मेहदी के रंग से गढ़ी हथेलियों को

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