Monday, December 24, 2012

क्यूँ रही हूँ धिक्कार, खुद के नारी होने में

सुगबुगाहट से भरी साँसे,  दर्द है क्यूँ रोने में
नीरस ही आ गए आँसू, यूँ आँखों के कोनों में ।
क्यूँ डरी, थी सहमी, पड़ी दुबक कर कोने में
क्यूँ रही हूँ धिक्कार, खुद के नारी होने में     ।।

यह कैसी विडम्बना  है या मेरी पराकाष्ठा है
 मैं ही जननी, मैं हूँ जननी, ये मेरी आस्था है  ।
मैं ही आधार, मैं ही साकार, संसार के होने में
फिर क्यूँ बेबस-लाचार, पल-2 कटता रोने में  ।।


लोगों ने पत्थर है पूजे,  पूजे जो है जो निराकार
नारी ही को क्यों न पूजे, जिससे जीवन साकार

Monday, December 17, 2012

मुझसे ज्यादा मुझको कौन जानेगा

इस ईमारत के कितने  झरोखे,
रोशनदान है इसमें कितने,
भला मुझसे बेहतर कौन जानेगा ।
किस झरोखे  से आती हवा,
सूरज की किरणे गुजरेंगी  कहाँ,
भला मुझसे बेहतर कौन जानेगा ।
रखा  है कीमती सामान कहाँ
कहाँ रखा कबाड़ कौन जानेगा

फिर से अब नहीं चटकते
वो बचपन के अल्लड किस्से
वो मीठे मीठे दादी के किस्से        ।
नानी का वो रिसका कहना
मामी का वो नक्सा सहना
माँ के हाथों की मखाने की खीर
पिता ने दिलाये थे जो कमान व तीर
मामा की बत्तू की बातें
बाबा के नमकीन सत्तू
पड़ोस के वो बुड्डे  दददू
वो दीवार का तिरछा कोना
जब पड़ता था झुक  के निकलना
विद्यालय की कठिन पढाई,
जब दिखती थी सामत आई,
शुरू कर देता था पढाई
इसमें ही दिखती थी भलाई
भला इससे बेहतर मुझको कौन जानेगा
मुझसे ज्यादा मुझको कौन पहचानेगा