Monday, December 24, 2012

क्यूँ रही हूँ धिक्कार, खुद के नारी होने में

सुगबुगाहट से भरी साँसे,  दर्द है क्यूँ रोने में
नीरस ही आ गए आँसू, यूँ आँखों के कोनों में ।
क्यूँ डरी, थी सहमी, पड़ी दुबक कर कोने में
क्यूँ रही हूँ धिक्कार, खुद के नारी होने में     ।।

यह कैसी विडम्बना  है या मेरी पराकाष्ठा है
 मैं ही जननी, मैं हूँ जननी, ये मेरी आस्था है  ।
मैं ही आधार, मैं ही साकार, संसार के होने में
फिर क्यूँ बेबस-लाचार, पल-2 कटता रोने में  ।।


लोगों ने पत्थर है पूजे,  पूजे जो है जो निराकार
नारी ही को क्यों न पूजे, जिससे जीवन साकार

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